गजलें और शायरी >> उजालों की परियाँ उजालों की परियाँसुरेश कुमार
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बशीर बद्र की गजलों का अनूठा संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समकालीन उर्दू शायरी में बशीर बद्र एक ऐसेजगमगाते हुए नक्षत्र का नाम है, जिसने ग़ज़ल को आत्मसात करके उसे एक नयी दीप्ति और आभा प्रदान की है।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
जैसे अनेक कालजयी शे’रों के रचयिता
बशीर बद्र अपनी
निजी शैली और ज़बान की सादगी के कारण हिन्दी जगत में भी बेहद लोकप्रिय और
सम्मानित हैं।
प्रेम जैसे शाश्वत विषय को अपनी ग़ज़लों का केन्द्रीय कथ्य बनाने वाले बशीर बद्र ऐसा नहीं कि अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के प्रति जागरूक न हों। सामाजिक विसंगतियों ने उन्हें जब-जब आहत किया है, तब-तब उन्होंने प्रेम से इतर अनुभूतियों को भी अपने शे’रों में ढाला है और उसे काव्यात्मकता प्रदान की है-
प्रेम जैसे शाश्वत विषय को अपनी ग़ज़लों का केन्द्रीय कथ्य बनाने वाले बशीर बद्र ऐसा नहीं कि अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के प्रति जागरूक न हों। सामाजिक विसंगतियों ने उन्हें जब-जब आहत किया है, तब-तब उन्होंने प्रेम से इतर अनुभूतियों को भी अपने शे’रों में ढाला है और उसे काव्यात्मकता प्रदान की है-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
जिस सामाजिक, राजनीतिक चेतना की अपेक्षा एक
कलाकार से की
जाती है, उसे बशीर बद्र बेशक पूरा न करते हों लेकिन स्वार्थ और घृणा की
आँधियों के वातावरण में प्रेम और मोहब्बत के जिन चिराग़ों को वे
प्रज्जवलित किये हुए हैं, वह कोई आसान काम नहीं है। उनके जलाये हुए
शे’रों के चिराग़ लोगों की अँधेरी राहों में रोशनी किये हुए हैं
और
ऐसे बहुत से लोग हैं, जो नहीं जानते कि ये चिराग़ बशीर बद्र के जलाये हुए
हैं। ये ख्याति की चरमसीमा है कि कोई बशीर बद्र ही से पूछे- उजाले अपनी
यादों के... ये शे’र किसका है, जवाब नहीं। आप भी कभी ऐसा
शे’र
कहिए।
अगर किसी को दस शे’र याद हैं, तो यक़ीन मानिए कि उनमें से कम से कम पाँच शे’र बशीर बद्र के होंगे। ऐसी जनप्रियता सदियों में कभी-कभी किसी-किसी को ही नसीब होती है।
बशीर बद्र अपने समकालीनों में शायद किसी से अपनी प्रतिद्वंद्विता नहीं मानते। उनका सीधा मुक़ाबला मीर और ग़ालिब से होता है। उनका कहना है कि शे’र में एक शब्द भी अगर मुश्किल हो तो शे’र दो कौड़ी का। इस संकलन के संबंध में मेरी जब उनसे फोन पर बात हुई तो बोले-आप बेदर्दी से मेरे उन शे’रों को काट दीजिए, जिनमें एक शब्द भी मुश्किल हो। अपने पहले संग्रह ‘इकाई’ की अधिकांश ग़ज़लों को वे ख़ारिज करते हैं। हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने कभी लिखा था-जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। मुझे नहीं पता हिन्दी में कितने लोगों ने उनकी बात सुनी, लेकिन बशीर बद्र शायद शुरू से ही इस बात का ध्यान रखते आये हैं। इसीलिए उनके शे’र जनसाधारण की ज़बान पर चढ़े हुए हैं।
बशीर बद्र से पहली बार मैं मेरठ में उन दिनों के उनके शास्त्री नगर स्थित आवास पर दिसम्बर 1981 में मिला था। उनसे बात करना जैसे साक्षात ग़ज़ल से बात करना है। अदब चाहिए। उन्होंने तब एक ताज़ा शे’र सुनाया था-
अगर किसी को दस शे’र याद हैं, तो यक़ीन मानिए कि उनमें से कम से कम पाँच शे’र बशीर बद्र के होंगे। ऐसी जनप्रियता सदियों में कभी-कभी किसी-किसी को ही नसीब होती है।
बशीर बद्र अपने समकालीनों में शायद किसी से अपनी प्रतिद्वंद्विता नहीं मानते। उनका सीधा मुक़ाबला मीर और ग़ालिब से होता है। उनका कहना है कि शे’र में एक शब्द भी अगर मुश्किल हो तो शे’र दो कौड़ी का। इस संकलन के संबंध में मेरी जब उनसे फोन पर बात हुई तो बोले-आप बेदर्दी से मेरे उन शे’रों को काट दीजिए, जिनमें एक शब्द भी मुश्किल हो। अपने पहले संग्रह ‘इकाई’ की अधिकांश ग़ज़लों को वे ख़ारिज करते हैं। हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने कभी लिखा था-जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। मुझे नहीं पता हिन्दी में कितने लोगों ने उनकी बात सुनी, लेकिन बशीर बद्र शायद शुरू से ही इस बात का ध्यान रखते आये हैं। इसीलिए उनके शे’र जनसाधारण की ज़बान पर चढ़े हुए हैं।
बशीर बद्र से पहली बार मैं मेरठ में उन दिनों के उनके शास्त्री नगर स्थित आवास पर दिसम्बर 1981 में मिला था। उनसे बात करना जैसे साक्षात ग़ज़ल से बात करना है। अदब चाहिए। उन्होंने तब एक ताज़ा शे’र सुनाया था-
किसी की राह में चौखट पे दिये मत रक्खो
किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं
किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं
बाद में उन्होंने पहली पंक्ति को
‘किसी की राह में
दहलीज़ पर दिये न रखो’ करके छपवाया। इस संकलन में वही बदला हुआ
रूप
है। उनके पाँच उर्दू संग्रहों इकाई, इमेज, आमद, आसमान और आस से इस संकलन
की ग़ज़लों का चयन किया गया है। यद्यपि हिन्दी में उनके अनेक संकलन आ चुके
हैं। समग्र भी छप चुका है। फिर भी इस संकलन की अपनी विशिष्टताएँ हैं। जिसे
पाठक स्वयं अनुभव करेंगे।
-सुरेश कुमार
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से
बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया न कहा हुआ न सुना हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया न कहा हुआ न सुना हुआ
(1)
न जी भर के देखा, न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनायी ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़बाँ सब समझते हैं जज़्बात की
मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब1 का,
बरसती हुई रात बरसात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं,
कहाँ दिन गुज़ारा, कहाँ रात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनायी ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़बाँ सब समझते हैं जज़्बात की
मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब1 का,
बरसती हुई रात बरसात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं,
कहाँ दिन गुज़ारा, कहाँ रात की
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1.आँसुओं से भरी आँख।
1.आँसुओं से भरी आँख।
(2)
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जायेगा
कितनी सच्चाई से मुझसे ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जायेगा
मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तों
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा
सब उसी के हैं हवा, ख़ुशबू, ज़मीन-ओ-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जायेगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जायेगा
कितनी सच्चाई से मुझसे ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जायेगा
मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तों
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा
सब उसी के हैं हवा, ख़ुशबू, ज़मीन-ओ-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जायेगा
(3)
मुझसे बिछुड़ के खुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
उजले-उजले फूल खिले थे
बिलकुल जैसे तुम हँसते हो
मुझको शाम बता देती है
तुम कैसे कपड़े पहने हो
दिल का हाल पढ़ा चेहरे से
साहिल से लहरें गिनते हो
तुम तनहा दुनिया से लड़ोगे
बच्चों-सी बातें करते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
उजले-उजले फूल खिले थे
बिलकुल जैसे तुम हँसते हो
मुझको शाम बता देती है
तुम कैसे कपड़े पहने हो
दिल का हाल पढ़ा चेहरे से
साहिल से लहरें गिनते हो
तुम तनहा दुनिया से लड़ोगे
बच्चों-सी बातें करते हो
(4)
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में
(5)
आँखों में रहा दिल में न उतरकर देखा,
कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
(6)
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे,
हज़ारों तरफ से निशाने लगे
हुई शाम, यादों के इक गाँव से,
परिन्दे उदासी के आने लगे
घड़ी-दो घड़ी मुझको पलकों पे रख,
यहाँ आते-आते ज़माने लगे
कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं,
दुकानें खुली, कारख़ाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का क़ालीन है,
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढ़ाई-लिखाई का मौसम कहाँ,
किताबों में ख़त आने-जाने लगे
हज़ारों तरफ से निशाने लगे
हुई शाम, यादों के इक गाँव से,
परिन्दे उदासी के आने लगे
घड़ी-दो घड़ी मुझको पलकों पे रख,
यहाँ आते-आते ज़माने लगे
कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं,
दुकानें खुली, कारख़ाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का क़ालीन है,
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढ़ाई-लिखाई का मौसम कहाँ,
किताबों में ख़त आने-जाने लगे
(7)
हर जनम में उसी की चाहत थे
हम किसी और की अमानत थे
उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई,
हम ग़ज़ल की कोई अलामत1 थे
तेरी चादर में तन समेट लिया,
हम कहाँ के दराज़क़ामत2 थे
जैसे जंगल में आग लग जाये,
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे
पास रहकर भी दूर-दूर रहे,
हम नये दौर की मोहब्बत थे
इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया,
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे
दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना,
ये दिये रात की ज़रूरत थे
हम किसी और की अमानत थे
उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई,
हम ग़ज़ल की कोई अलामत1 थे
तेरी चादर में तन समेट लिया,
हम कहाँ के दराज़क़ामत2 थे
जैसे जंगल में आग लग जाये,
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे
पास रहकर भी दूर-दूर रहे,
हम नये दौर की मोहब्बत थे
इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया,
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे
दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना,
ये दिये रात की ज़रूरत थे
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1.चिह्न, लक्षण। 2.दीर्घकाय।
1.चिह्न, लक्षण। 2.दीर्घकाय।
(8)
वो चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है, मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीनों से,
तुम्हें खुदा ने हमारे लिए बनाया है
उसे किसी की मोहब्बत का एतबार नहीं,
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
महक रही है ज़मीं चाँदनी के फूलों से,
ख़ुदा किसी की मोहब्बत पे मुस्कराया है
कहाँ से आयी ये ख़शुबू, ये घर की ख़ुशबू है,
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है
तमाम उम्र मिरा दम उसी धुएँ में घुटा
वो इक चिराग़ था मैंने उसे बुझाया है
बहुत अज़ीज़ हमें है, मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीनों से,
तुम्हें खुदा ने हमारे लिए बनाया है
उसे किसी की मोहब्बत का एतबार नहीं,
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
महक रही है ज़मीं चाँदनी के फूलों से,
ख़ुदा किसी की मोहब्बत पे मुस्कराया है
कहाँ से आयी ये ख़शुबू, ये घर की ख़ुशबू है,
इस अजनबी के अँधेरे में कौन आया है
तमाम उम्र मिरा दम उसी धुएँ में घुटा
वो इक चिराग़ था मैंने उसे बुझाया है
(9)
यूँ ही बेसबब न फिरा करो,कोई शाम घर भी
रहा करो,
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा,
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ,
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो
ये ख़िज़ाँ1 की ज़र्द2-सी शाल में, जो उदास पेड़ के पास है,
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा,
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ,
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो
ये ख़िज़ाँ1 की ज़र्द2-सी शाल में, जो उदास पेड़ के पास है,
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो
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1.पतझड़। 2.पीली।
1.पतझड़। 2.पीली।
(10)
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती ने मिला,
अगर गले नहीं मिलता, तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे,
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं, घर में छोड़ आया था,
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात1 में मैंने,
बस एक शख़्स को माँगा, मुझे वही न मिला
बहुत अजीब है यें कुर्बतों2 की दूरी भी,
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
अगर गले नहीं मिलता, तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे,
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं, घर में छोड़ आया था,
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात1 में मैंने,
बस एक शख़्स को माँगा, मुझे वही न मिला
बहुत अजीब है यें कुर्बतों2 की दूरी भी,
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
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1.ब्रह्माण्ड, संसार। 2.समीपताओं।
1.ब्रह्माण्ड, संसार। 2.समीपताओं।
(11)
सोचा नहीं अच्छा-बुरा, देखा-सुना कुछ भी
नहीं
माँगा ख़ुदा से रात-दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं
सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भार,
भेजा वही काग़ज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक,
आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं
दो-चार दिन की बात है, दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा, बाक़ी, बचा कुछ भी नहीं
एहसास की ख़शुबू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ,
ख़ामोश यादों के सिवा, घर में रहा कुछ भी नहीं
माँगा ख़ुदा से रात-दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं
सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भार,
भेजा वही काग़ज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं
इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक,
आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं
दो-चार दिन की बात है, दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा, बाक़ी, बचा कुछ भी नहीं
एहसास की ख़शुबू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ,
ख़ामोश यादों के सिवा, घर में रहा कुछ भी नहीं
(12)
कभी यूँ भी आ मिरी आँख में, कि मिरी नज़र
को ख़बर न हो,
मुझे एक रात नवाज़1 दे, मगर उसके बाद सहर2 न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम3 है, मुझे ये सिफ़त4 भी अता5 करे,
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो मिरी दुआ में असर न हो
मिरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब6 है चाँदनी,
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में, पिछली रात की चाँदनी,
न बुझे ख़राबे7 की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर में न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब8 के फूल को चूम के,
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
मिरे पास मेरे हबीब9 आ ज़रा और दिल से क़रीब आ,
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं कि बिछड़ने का कोई डर न हो
मुझे एक रात नवाज़1 दे, मगर उसके बाद सहर2 न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम3 है, मुझे ये सिफ़त4 भी अता5 करे,
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो मिरी दुआ में असर न हो
मिरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब6 है चाँदनी,
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँखों में, पिछली रात की चाँदनी,
न बुझे ख़राबे7 की रोशनी, कभी बेचिराग़ ये घर में न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब8 के फूल को चूम के,
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
मिरे पास मेरे हबीब9 आ ज़रा और दिल से क़रीब आ,
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं कि बिछड़ने का कोई डर न हो
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1.कृपा करना। 2.प्रातःकाल। 3.दयालु और कृपालु। 4.गुण, प्रभाव। 5.प्रदान करना। 6. स्वप्न देखने में रत। 7.निर्जन, खँडहर। 8.रात्रि। 9.मित्र।
1.कृपा करना। 2.प्रातःकाल। 3.दयालु और कृपालु। 4.गुण, प्रभाव। 5.प्रदान करना। 6. स्वप्न देखने में रत। 7.निर्जन, खँडहर। 8.रात्रि। 9.मित्र।
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